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आ वि॒श्वदे॑वं॒ सत्प॑तिं सू॒क्तैर॒द्या वृ॑णीमहे। स॒त्यस॑वं सवि॒तार॑म् ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā viśvadevaṁ satpatiṁ sūktair adyā vṛṇīmahe | satyasavaṁ savitāram ||

पद पाठ

आ। वि॒श्वऽदे॑वम्। सत्ऽप॑तिम्। सु॒ऽउ॒क्तैः। अ॒द्य। वृ॒णी॒म॒हे॒। स॒त्यऽस॑वम्। स॒वि॒तार॑म् ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:82» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (अद्या) आज (सूक्तैः) उत्तम प्रकार कहे गये सत्य वचनों वा वेदोक्त वचनों से (विश्वदेवम्) संसार के प्रकाश करने और (सत्पतिम्) प्रकृति आदि पदार्थ और सत्पुरुषों के पालन करनेवाले (सत्यसवम्) नहीं नाश होनेवाला सामर्थ्ययोग्य जिसका उस (सवितारम्) सम्पूर्ण पदार्थों के बनानेवाले परमात्मा का (आ, वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, वैसे आप लोग भी स्वीकार कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य का आश्रय नहीं करें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा वयमद्या सूक्तैर्विश्वदेवं सत्पतिं सत्यसवं सवितारं परमात्मानमाऽऽवृणीमहे तथा यूयमपि वृणुत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (विश्वदेवम्) विश्वस्य प्रकाशकम् (सत्पतिम्) सतां प्रकृत्यादीनां सत्पुरुषाणां पतिं पालकम् (सूक्तैः) सुष्ठु सत्यैर्वचनैर्वेदोक्तैर्वा (अद्या) अद्य। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृणीमहे) स्वीकुर्महे (सत्यसवम्) सत्योऽविनाशी सवः सामर्थ्ययोगो यस्य तम् (सवितारम्) सकलपदार्थनिर्मातारम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । मनुष्यैः परमेश्वरं विहाय कस्याप्यन्यस्याश्रयो नैव कर्त्तव्यः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी परमेश्वराला सोडून दुसऱ्या कुणाचाही आश्रय घेऊ नये. ॥ ७ ॥